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खंड १
" अशुद्ध हूँ , क्रुद्ध हूँ , न्याय के विरुद्ध हूँ
अन्याय का प्रतीक हूँ , कृतघ्न हूँ , समृद्ध हूँ "
युगो से जो चला आ रहा , हाँ वही अभिशाप हूँ
पाप हूँ , रोग हूँ , क्रोध हूँ, शोक हूँ ,
संताप हूँ , अज्ञान हूँ , विकार हूँ , नाश हूँ
तुम्हारी भीतर जो पल रहा उसी विनाश का प्रतिबिम्ब हूँ
जिव्हा पर जो ना रुके उसी विष की एक घूँट हूँ
सामाज का कलंक हूँ , अशांति का पंक हूँ
तुम्हारे दुखो की जननी हूँ तुम्हारे अवगुणो का सार हूँ
तेरे अंदर छिपे शैतान के सर का मैं ताज हूँ ,
तुम्हारा तेजहन्ता हूँ , समुद्री विष गरल हूँ
तू है जिसे रोज़ ही छुपाता उन्ही
काले करतूतों की कलम हूँ मैं
तेरे दानवता का उदहारण भी हूँ
मानवता का मरण भी हूँ
महलो में जो ना मिले उन सिक्को की खनक भी हूँ
मंदिरो में चढ़ाए गए इच्छाओ की झलक भी हूँ
भू का नरक , रोगो का कर्क हूँ
जिसकी संवेदनाये है मर चुकी
उसी मनुष्य का दर्द हूँ
पाकर मुझे है फेंकता
मगर पाने के लिए है सब दुःख झेलता
भौतिक सुखो का श्राप हूँ
जो स्वजनों को ही काटे
हाँ वही एक साप हूँ
पुरुषार्थ की बलि हूँ देता कायरता के देवता को
मानवता की आंच पर किये हूँ ज़िंदा आंतक को
सर्वभक्षी को भी आये लज्जा ऐसा एक पिसाच हूँ
मौत का पर्याय हूँ अकर्मियो का अहंकार हूँ
कुछ लोग मानते मुझे जीवन का अभिप्राय
मगर उन्ही के मौत का वरदान हूँ
धरती पर हैं व्याप्त जो बुराई
हाँ उसी की जड़ हूँ मैं
न कोई ख़त्म कर पाया जिसे
हाँ वही अमृत हूँ मैं
नरकंकाल के जिस्म का
बचा हुआ अवशेष हूँ
कोने में छिपा हुये अँधकार का श्रोत हूँ
तुम्हारी सोच का अंत हूँ
तुम्हारी मूर्खता का श्रोत हूँ
तुम्हारी इच्छाओ का केंद्र हूँ
तुम्हारी कल्पनाओ का यथार्थ हूँ
तुम्हारी रौशनी का अँधेरा हूँ
तुम्हारी मौत का सवेरा हूँ
कैसे तुम मुझको पढोगे
तुम्हारी समझ का ही तो अंत हूँ
राम का वनवास हूँ रावण का वरदान हूँ
और कंस का न्याय हूँ अंग्रेजीे सोच का गुलाम हूँ
बंजर जमीन का फूल हूँ गाँधी का अन्याय हूँ
भूल चुके जिस भूल को मैं उसी का परिणाम हूँ
इच्छाओ की आग में जल रहा कंकाल हूँ
भूत का विचार हूँ भविष्य का अंधकार हूँ
जटाधारी का कालनेत्र हूँ ईर्ष्या का वृहत क्षेत्र हूँ
असुरो का हितैसी हूँ , मैं आज़ाद